ब्रह्मर्षि श्री खेताराम जी महाराज

ब्रह्मांशावतार श्री खेतारामजी महाराज

ब्रह्माराधन संलीनम् ब्रह्मधाम प्रतिष्ठितम्: |
ब्रह्ममार्गोपदेष्टरम् खेतेश्वर नमाम्यहम्: ||
ब्रह्मांशावतार श्री खेतारामजी महाराज की मूर्ति

श्री खेतेश्वर जीवन कथा

परम् आराध्य ब्रह्मांशावतार खेतारामजी महाराज का जन्म विक्रम संवत् 1969 मास वैशाख शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि सोमवार को तदनुरूप दिनांक 22 अप्रेल सन् 1912 को सांचौर तहसील के बिजरौल खेड़ा नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिताजी का नाम श्री शेरसिंहजी व माताजी का नाम श्रीमती सिणगारी देवी था जो कि मूलतः बाड़मेर जिले के पचपदरा तहसील के सराणा नामक गांव के रहने  वाले थे ।

सराणा राजपुरोहित बाहुल्य गांव है जहां उदालक ऋषि कुल उदीच (उदेश) गौत्र के श्री शेरसिंहजी सराणा में ही निवास करते थे।

मारवाड़ में उन दिनों अकाल आम बात थी। ऐसे में आजीविका के लिए रोजगार हेतु लोग प्रवास गमन करते थे। श्री शेरसिंहजी भी अपनें परिवार सहित बिजरौल खेड़ा पर मेघाजी चैधरी के कृषि कुंए पर रहते और कृषि कार्य करते थे। उनके परिवार में श्री भोमारामजी और हुक्मारामजी दो पुत्र थे और तीसरी संतान के रूप में माता श्रीमती सिणगारी देवी की पावन कोख से खेतारामजी महाराज का अवतरण हुआ। कहते है उस वर्ष सांचौर परगने में अच्छी बारिश हुई और क्षेत्र भरपूर फसल पैदावार हुई। फिर कुछ अरसे बाद शेरसिंहजी का परिवार पुनः अपने पैतृक गांव सराणा आ बसा।

खेतारामजी महाराज के बचपन में ही माता-पिता का साया उठ गया था। लेकिन तीनों भाईयों में सबसे छोटे होने के कारण घर परिवार में भरपूर लाड़-प्यार मिला।

जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करहिं सब कोई –

                      बालक खेतारामजी को बचपन से ही भजन कीर्तन भक्ति-भाव में पूर्ण रूचि एवं आस्था थी। इसी भाव से खेतारामजी महाराज जागरण-कीर्तन जहां भी होता वहां बड़े ही श्रद्धा भाव से पहुंचते और भजन, ज्ञान-गंगा का श्रवण करते।

एक दिन किसी चौधरी बंधु के निवास पर जागरण चल रहा था। जहां एक पूज्य मलंगशाह सांईजी जो कि सांईजी की बेरी (गांव कुशीप सरहद) नामक स्थान से पधारे हुए थे एवं बालक खेतारामजी भी उसी जागरण में उपस्थित थे। रात-भर जगते हुए भजन-कीर्तन में भाग लिया और फिर …………….

ऐसी लागी लगन –

किशोर वय खेतारामजी बचपन में गाय बैल चराते थे और कृषि कार्य में हाथ बटाते थे। उनके मन मस्तिष्क में हर समय राम धुन ही रहती थी। दिन के वक्त समय अभाव के कारण रात को बैल खूंटे से बांधकर और भोजन इत्यादि से निवृत होकर जब परिजन सो जाते थे तब खेतारामजी महाराज प्रतिदिन रात को सांईजी की बेरी भजन कीर्तन के लिए जाते थे और दूसरे दिन सुबह पुनः अपनी दिनचर्या के अनुरूप गाय-बैल चरानें और कृषि कार्य में व्यस्त हो जाते थे।

सांईजी महाराज ने बालक खेतारामजी की भक्तिभावना और आस्था से प्रसन्न थे और एक दिन खेतारामजी की परीक्षा लेने की सोची। और खेतारामजी को यह बात बताई कि तुम रात को झाड़ियों से होते हुए दुरूह रास्ते से यहां आते हो यह स्थान पहाड़ियों से घिरा हुआ है बीच में खतरनाक जानवर भी रहते है अपना ध्यान रखना।

खेतारामजी ने भी हंस कर इस प्रश्न का उत्तर दिया कि जिसके सर पर समर्थ गुरू का हाथ हो, भला कोई हिंसक जानवर उसका क्या बिगाड़ सकता है।

चौमासा की एक रात, आसमान में घनघोर घटाएं छायी हुई थी, रह-रह कर बिजली चमक रही थी मगर अपनी धुन के पक्के खेतारामजी को तो भजन के लिए सांईजी की बेरी जाना ही था सो रात को घर से निकल पड़े। वो लगभग पहुंचने ही वाले थे कि बीच रास्ते में अचानक उन्हें कुछ असामान्य सा महसूस हुआ, उनके कदम रुक गये, चारों तरफ सन्नाटा था। अचानक आसमान से बिजली की तेज चमक के साथ मेघगर्जना हुई।

बिजली के प्रकाश में खेतारामजी महाराज ने देखा कि एक विशाल व्याघ्र (बाघ) रास्ते में बैठा हुआ था। लेकिन खेतारामजी तनिक भी घबराये नहीं और अगले ही पल उस बाघ के सामने दण्डवत् हो गये । तभी सांईजी महाराज की आवाज आयी  खेतारामजी ने ऊपर देखा तो सांईजी महाराज खड़े दिखे जो हंसते हुए कह रहे थे कि बालक तू परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। (आठ सिद्धियों में एक सिद्धि यह होती है कि साधक अपनें प्राणों का संचार किसी अन्य प्राणी में कर सकता है।)

लोगों को भक्तिभाव का पता लगना –

                                     सराणा गांव के अनुभवी और वरिष्ठजनों को लगा कि बालक खेतारामजी महाराज गाय-बैल चराते हुए चेतावनी और विरक्ति के भजन फकीरियां बड़े ही तारतम्य के साथ भक्तिभाव में डूब कर गा रहे है।

उन्हें लगा ये बात किसी सामान्य बालक के बस की नहीं है। तो उन्होंने बालक खेतारामजी पर ध्यान रखा। तो दो-तीन दिन उन्होंने पाया कि रात को जब सब सो जाते है तब खेतारामजी कहीं बाहर निकल जाते है और पवन वेग से चलते है। यह बात जब उन्होंने श्री भोमजी और हुक्माजी को बताई तो उन्होंने ज्यादा गौर नहीं किया।

पण्डित भवानीशंकरजी श्रीमाली प्रसंग –

                          सराणा गांव के ही पंडित भवानीशंकरजी के साथ बालक खेतारामजी कभी-कभी अध्यात्म और ज्योतिष ज्ञान पर चर्चा किया करते थे। एक दिन प्रातः खेतारामजी जंगल से शौच निवृत होकर लौट रहे थे तो पंडितजी के घर जानें का मानस बनाया । वहां जाकर पंडित जी से निवेदन किया कि वो पानी का लोटा लेकर पधारें और हाथ धुलाएं। पंडित जी भी पानी लेकर आ गये और ज्योंही खेतारामजी महाराज के हस्त प्रक्षालन के समय पंडितजी ने देखा कि बालक के हाथों की उंगलियों में विचित्र चक्र थे।

पंडित जी ने खेतारामजी को अन्दर बैठाकर तसल्ली से पूछा भाई खेताराम मैं तुम्हारे हाथों को देखना चाहता हूं। पंडितजी ने जब खेतारामजी महाराज के हाथ देखे तो हस्तरेखा मर्मज्ञ पंडितजी को बड़ा अचरज हुआ कि खेतारामजी के हाथों की सभी उंगलियों पर चक्र बने हुए थे तब पंडितजी ने खेतारामजी को बताया कि जिस किसी जातक के दोनों हाथों में पूरे दस चक्र हो वो या तो चक्रवर्ती सम्राट बनता है या कोई महान् योगी/तपस्वी बनता है। तब खेतारामजी ने बड़े ही विनादीभाव सेे कहा कि पंडितजी खेती बाड़ी का काम, गाय-बैल चरावतां थकां काहे का चक्रवर्ती सम्राट बण सकां….हां भक्तिभाव में म्हनें घणों चाव है। समय गुजरता गया और एक दिन किशोर खेतारामजी महाराज ने अपने घर वालों को आपने मन की बात बता ही दी कि उन्हें भगवद्भक्ति करने की अनुमति दी जायें। घर वालों ने खेतारामजी की बात पर गौर नहीं किया और सुनी अनसुनी कर दी।

ऊपर से खेतारामजी को सांसारिक बंधन में बांधने के लिए भिण्डाकुंआ गांव के एक सीहा परिवार में खेतारामजी की सगाई भी तय कर दी। खेतारामजी इस बात पर परेशान थे। घर वाले उनकी बात मान नहीं रहे थे और उनका तो ध्यान हर समय भगवान की भक्ति में ही गुजरता था।

खेतारामजी महाराज के सांसारिक विरक्ति की बात जब कोई परिजन सुनने को तैयार नहीं हुए तो एक दिन क्रोधित होकर एक बोतल केरोसिन पी गए और रात का समय था घर के कक्ष में अन्दर से कुण्डी लगाकर सो गये।

परिजनों ने बहुत आग्रह किया लेकिन कक्ष नहीं खोला । ऐसे में सारे परिजन चिन्तित थे और रात भर व्यथा में भगवान का स्मरण करते-करते उन्होंने तय किया कि यदि आज खेताराम के कुछ नहीं होता है तो हम इसे इसकी इच्छा के अनुरूप भक्ति करने की अनुमति दे देंगे।

दूसरे दिन प्रातः सूर्योदय के समय सारे परिजन आंगन में बैठे हुए थे कि खेतारामजी कक्ष से बाहर निकले , गुमसुम थे लेकिन स्वस्थ थे। परिजनों ने इसे एक दिव्य चमत्कार माना और खेतारामजी महाराज को उनकी इच्छा के अनुरूप भगवद्भक्ति के लिए सहमत हो गये।

मंगेतर को चुनरी ओढाई –

                         परिवार से अनुमति मिलने के बाद खेतारामजी महाराज ने सोचा कि वो कन्या जिसकी सगाई उनके साथ सम्पन्न हो गयी थी उसे धर्म की बहन बना कर बंधन मुक्त होना जरूरी है। तब कहते है कि खेतारामजी महाराज ने मणिहारी का सामान बेचने के बहाने उस गांव जाने का एक रास्ता खोजा और एक दिन यकायक वो घड़ी आ ही गयी जिसका उन्हें इन्तजार था।

वो कन्या जिसकी उनके साथ सगाई की हुई थी वो पनघट से पानी की मटकी लेकर आती दिखाई दी। खेतारामजी महाराज ने अपने पास उसके निमित्त लाई हुई चुनरी बाहर निकाली और भिण्डाकुंआ गांव के आम चैहटे पर उस कन्या के सर पर हाथ रखते हुए उसे चुनरी ओढाकर बहन शब्द से संबोधित किया । यह बात पूरे गांव में और कुछ ही दिनों में पूरे क्षेत्र में चर्चा का विषय बन गयी क्योंकि उससे पहले ऐसा कहीं हुआ नहीं था। पर जो होनी को मंजूर हो उसे कौन टाल सकता है।

समर्थ गुरू गुणेशानन्दजी का सानिध्य –

                                     सांसारिक बंधन से मुक्त होकर खेतारामजी महाराज सांईजी की बेरी पर रहते थे वहीं पर एक दिन परम् आराध्य समर्थ गुरू गुणेशानन्दजी महाराज आये हुए थे। बालक खेतारामजी महाराज की भक्ति भावना से प्रेरित होकर पूज्य गुणेशानंदजी ने फरमाया कि खेताराम अब तुम्हें किसी को अपना गुरू बना लेना चाहिये। तभी सांईजी महाराज बोल पड़े कि गुणेशानंदजी महाराज आपसे बढ़कर योग्य गुरू खेताराम को कहां मिलेंगे इसलिए आप ही इन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें महाराज।

तब कहते है गुरू गुणेशानंदजी महाराज ने ही खेतारामजी महाराज को दिल्ली में यमुना के किनारे ऋषि कर्म करवाया और शास्त्रसम्मत विधि विधान से एक सन्यासी के रूप में खेतारामजी महाराज को दीक्षित किया।

पीपलिया तपसाधना –

                  गृहस्थ त्याग कर एक सन्यासी के रूप में भगवद् प्राप्ति के लिए तप साधना हेतु सर्वप्रथम पूज्य खेतारामजी महाराज ने सांईजी की बेरी के पास आसोतरा गांव की सरहद स्थित पीपलिया नामक स्थान को चुना और वहां बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। जहां आस-पास के क्षेत्र के 36 कौम के लोग आते, भजन कीर्तन होता और रात के समय जैसा कि सांईजी की बेरी और पीपलिया के बीच स्थित पर्वत श्रृंखला में व्याग्र, चीते दहाड़ते थे लेकिन भगवद्भक्ति में लीन पूज्य पूज्य खेतारामजी महाराज अविचल तपस्या करते रहे। निकटवर्ती बम्बराळ के पहाड़ों में मां जगदम्बा का एक मंदिर है जहां पूजा अर्चना के लिए जाते।

तपस्या में लीन श्री खेताराम जी महाराज

पाती प्रवास –

            पीपलिया से तपसाधना करके पूज्य खेतारामजी महाराज पाली जिले में प्रवास पर पधारे और वहां पाती नामक स्थान पर छः माह तक तपस्या की और वहां एक मां अम्बाजी का मंदिर भी बनवाया। पाती और आसपास के क्षेत्र के लोगों ने पूज्य खेतारामजी महाराज को बहुत मान सम्मान दिया ।

समदड़ी तपसाधना –

                   समदड़ी में लोको कालोनी के पास स्थित एक स्थल जिसे खेतारामजी की बगीची के नाम से जाना जाता है वहां रहते हुए पूज्य खेतारामजी महाराज ने 12 साल तक तप साधना की। दिन में बगीची से तीन किलोमीटर दूर मौखण्डी गांव के पास स्थित एक खेत में खेजड़ी के पेड़ के नीचे आसन लगा कर तपस्या करते थे। और रात में क्षेत्र के 36 कौम के लोग दर्शन करने आते और सत्संग का कार्यक्रम होता।

खेतारामजी की बगीची के निकट एक भूखण्ड था जो दर्जी जाति समाज का था। दर्जी समाज के लोग भी दाता के अन्नय भाविक थे। एक बार दर्जी समाज के कुछ मौजिज लोग दाता के सानिध्य में बगीची में बेैठे थे और चर्चा चली जिसमें दाता ने फरमाया कि दर्जी समाज के लोग उस भूखण्ड पर पीपाजी महाराज का एक मंदिर बनवा लो। बात काफी आगे बढी दर्जी समाज की बैठकें होने लगी सभी की सहमति बनने लगी, धन संग्रह होनें लगा एक बार गोडवाड़ की तरफ दर्जी समाज ने पीपाजी मंदिर निर्माण के लिए चंदा उगाही हेतु जाने का कार्यक्रम बनाया और उसमें दाता को साथ चलने का निवेदन किया दाता ने भी सहमति दे दी। वहां दर्जी समाज की एक बैठक में दाता ने उपदेश स्वरूप कुछ बातें बताई , जैसे नशा नहीं करना, आदि।  ऐसे में कोई एक दर्जी बन्धु ने सभा में खड़े होकर दाता को यह कह दिया कि महाराज आप तो आपरे पुरोहित समाज ने सुधारो, नशा तो आपरे समाज में भी घणां जणां करे है।

होनहार बलवान होता है, विधि को यही मंजूर था, पूज्य खेतारामजी महाराज के मन मस्तिष्क पर इस बात का इतना गहरा असर हुआ कि दाता ने वहीं यह घोषणा कर दी कि रामजी ,,, अब मैं मेरे समाज का ही कल्याण करूंगा और ईश्वर आपको भी सद्बुद्धि दें आप सभी का भी कल्याण हो।

कहते है कि उस दिन से ही खेतेश्वर दाता ने सम्पूर्ण तप साधना पुरोहित कुल के उद्धार के लिए समर्पित कर दी ।

गढ़ सिवाणा एवं मूठली तालाब पर तप साधना –

                               समदड़ी के बाद खेतारामजी महाराज ने गढ़ सिवाणा स्थित प्राचीन रामदेव मंदिर में छः माह तप तपस्या की तत्पश्चात छः माह तक मूठली गांव के तालाब पर तप साधना की जहां पर कुछ वनवासी नवरात्र के मौके पर देवी के स्थल पर एक दिन एक बकरे की बलि देने जा रहे थे। दाता को यह भनक लगी तो उन्होंने उन वनवासियों को समझाया कि देवता तो जीवन देते है वो किसी का जीवन लेते नहीं है। इसलिए इस मूक प्राणि को छोड़ दीजिये नहीं तो यह प्रारब्ध के कर्माे के अनुसार अगले जन्म तुमसे बदला लेगा। कहते है वनवासियों ने तब से पशुबलि देना बंद कर दिया।

आसोतरा की धन्यधरा पर दाता का पदार्पण –

                                        मूठली तालाब पर साधना उपरांत पूज्य खेतारामजी महाराज आगे बढ़े जहां वर्तमान ब्रह्मधाम है वहां एक मठ हुआ करती थी जहां विरदारामजी महंत जी रहते थे वहीं खेतारामजी महाराज ने भगवद्भक्ति शुरू की।

पूज्य दाता को इस स्थान पर विशेष दिव्य अनुभूति हुई होगी जिसके कारण आज यह स्थान देश और दुनिया के लिए राजपुरोहित समाज का राजधानी केन्द्र और ब्रह्मधाम के रूप में प्रतिष्ठित है। दाताश्री राजपुरोहित समाज को संगठित करना चाहते थे इस दृष्टि से आसोतरा स्थित यह स्थान राजस्थान के राजपुरोहित बाहुल्य जिलों के लगभग मध्य में स्थित होना भी एक कारण रहा होगा जिससे इसी स्थान का चयन किया गया।

आसोतरा स्थित यह स्थान लम्बे समय तक खेतारामजी की प्याऊ के नाम से जाना जाता था। दाता ने यहां पदार्पण कर सर्वप्रथम एक रामदेवजी का मंदिर बनवाया और कुंआ खुदवाया फिर ब्रह्माजी का एक भव्य मंदिर बनवानें की कल्पना की और उस पर खर्च होने वाला एक-एक रूपया केवल राजपुरोहित समाज से ही लेने का निर्णय किया जिसके लिए घर-घर जाकर चंदा वसूली की और दाता की तपस्या का चमत्कार यह रहा कि उन्होंने इतना स्पष्ट कह दिया था कि रामजी घणों चईजै तो घणों दो ………….अर्थात हर परिवार से उनके सामर्थ्य से भी बढकर चंदा देने का आग्रह किया गया

विक्रम संवत् 2018 मास वैषाख शुक्ल पक्ष पंचमी तिथि गुरुवार को तदनुरूप दिनांक 20 अप्रेल सन् 1961 को ब्रह्मधाम का शिलान्यास पूज्य दाता के कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ। मंदिर निर्माण के लिए दाताश्री मुकुन्द घोड़े पर सवार होकर गांव-गांव और सुदूर प्रवास भ्रमण करते रहे। पैसों के आय-व्यय का हिसाब किताब गुड़ानाल के श्री पदमारामजी सोढा देखते थे वो सवैतनिक सेवाएं देते थे प्रवास के बाद पूज्य दाताश्री जब भी धाम लौटते थे तो अपनी झौली से सारी रकम निकाल कर पदमारामजी को दे देते थे जो रिकार्ड में जमा कर देनदारियां चुकाते थे।

एक दिन पदमारामजी किसी विचित्र अनुभव से गुजरे। हुआ यूं कि एक ट्रक वाला जो चीणें लेकर आया था उसे जल्दी निकलना था उसके लगभग दस हजार रूपये हिसाब के निकलते थे। उसने पदमारामजी से आग्रह किया कि उसे उसका भुगतान जल्दी किया जाये तो वो जरूरी कार्य से लौटना चाहता है। जबकि दाताश्री विश्राम कर रहे थे। पदमारामजी दाताश्री की झौली से स्वयं कभी पैसे नहीं निकालते थे। तो उनके विश्राम से उठने तक ड्राइवर को रूकने का कहा। आखिर ड्राइवर के अति आग्रह पर वे उसकी विवषता पर तरस खा कर पदमारामजी उठे और दाताश्री की झौली से दस हजार रूपये निकालने के लिए ज्योंही हाथ डाला तो पाया कि झौली में पैसे नहीं थे। मजबूरन ड्राइवर को इन्तजार करना ही पड़ा। कुछ देर बार जब दाताश्री विश्राम बाद लौटे तो ड्राइवर को देखते ही पदमारामजी से बोले …………… रामजी इणने पईसा परा देता पदमाजी………

अब पदमारामजी के पास कोई जबाव नहीं था। दाताश्री ने पदमारामजी को झौली जो दीवार के लटक रही थी उसे लाने का इशारा किया। पदमारामजी ने संषय पूर्वक झौली ला कर दी ।

और ये क्या………. ज्यों ही दाताश्री ने झौली में हाथ डाला और दस हजार की गड्डी उनके हाथ में आयी जिसे उस ड्राइवर को भुगतान करने का आदेश दिया।

कहते है उस दिन के बाद पदमारामजी ने जो सवैतनिक सेवाएं दे रहे थे, वेतन लेना बंद कर दिया और निःशुल्क सेवाएं ही देते रहे।

योगसिद्धी से परिपूर्ण – रेलगाड़ी का प्रसंग –

                  एक बार दाताश्री जोधपुर पधार रहे थे, वो समदड़ी से रेलगाड़ी में सवार हुए ही थे कि टीटीई आया तो दाताश्री ने टीटीई से आग्रह किया कि धुन्दाड़ा से कोई एक भाविक उनके साथ जोधपुर के लिए गाड़ी में चढेगा अगर वो थोड़ा लेट हो जाय तो गाड़ी रोक रखना। उस पर टीटीई ने आवेश में आकर कहा महाराज ये कोई बैलगाड़ी या टेम्पो थोड़े ही है जो किसी सवारी के लिए रोक कर रखें ये तो रेलगाड़ी है जो अपनें निर्धारित समय से चलती है।

इस पर दाताश्री को गुस्सा आ गया और वो धुन्दाड़ा रेल्वे स्टेशन पर ही उतर कर बैन्च पर विराजमान हो गये। दाताश्री को बैन्च पर बैठा देख कई भक्त जन उनके पास इकट्ठा हो गये। इधर रेलगाड़ी के रवाना होने का समय हो गया था मगर देखा तो इंजिन हांफ गया था। इंजिनियर ने जोधपुर से दूसरा इंजिन मंगवाने का निवेदन किया , स्टेशन मास्टर परेशान था वो दूसरे इंजिन के लिए फोन करने ही वाला था कि टीटीई आया और स्टेशन मास्टर से निवेदन किया कि कोई संत महाराज है जो मेरी किसी बात पर नाराज हो गये है अगर उन्हें राजी कर दिया जाये तो गाड़ी का इंजिन ठीक हो जाएगा और दूसरा मंगवाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। स्टेशन मास्टर जी कुछ उहापोह में रहे आखिर उन्होंने महाराज जी के पास जाकर क्षमायाचना करने पर राजी हो गये। टीटीई और स्टेशन मास्टर दोनो जब दाताश्री के पास जाकर हाथ जोड़कर क्षमा याचना करनें लगे और तब तक वो भाविक बन्धु भी आ चुके थे फिर थोड़े से संवाद के बाद देखा कि इंजिन चालू हो गया और गाड़ी जोधपुर के लिए रवना हो गई। उस घटना के बाद जो टीटीई आजीवन खेतारामजी महाराज का भाविक बना रहा।

शबरी स्वरूपा मेंथी बाई को आश्रय –

                                यह मातृशक्ति भील जाति से थी जिसके गृहस्थ जीवन में कोई विवाद चल रहा था तो पीहर आकर बस गई। पीहर पक्ष कहीं अन्यत्र गृहस्थी बसाना चाहते थे लेकिन मेंथीबाई ने स्पष्ट मना कर दिया और बोला कि मैं तो भगवान की भक्ति करूंगी और यही मेरा अंतिम निर्णय है। फिर उसे जब भी पता चलता कि आज खेतारामजी महाराज अमूक जगह पधारे हुए है तो वो वहां पहुंच जाती और दाता के दर्शन करती , कहीं जागरण कीर्तन होता तो वहां जाती और प्रौढ अवस्था में एक दिन मेंथी पूज्य दाताश्री से आग्रह कर ही दिया कि उसे आश्रय दिया जाय धाम पर भगवान की भक्ति करना चाहती है तब खेतारामजी महाराज ने बड़े प्रेमभाव से सहमति दे दी।

मेंथीबाई आश्रम परिसर और घुड़साल बुहारती सफेद वस्त्र धारण किये रहती हर किसी से हाथ जोड़ कर बड़े ही प्रेमभाव से मिलती और अंत तक ईशभक्ति करते-करते इस दुनिया से विदा हो गई, धाम परिसर में उसका स्मारक बना हुआ है।

ब्रह्मसरोवर की खुदाई –

                         ब्रह्मधाम के पास एक सरोवर हो जैसी संरचना साक्षात् पुष्करराज में है इसी भाव से पूज्य खेतारामजी महाराज ने एक बडा़ सरोवर बनाने का निर्णय किया। जहां आज सरोवर स्थित है वहां की खुदाई दाताश्री ने बड़े ही मनोयोग से करवाई। दाताश्री दिन में वहीं खेजड़ी के पेड़ के नीचे बिराजे रहते जब काफी भक्तजन दर्शनार्थ इकट्ठा हो जाते तो दाताश्री स्वयं उठकर सरोवर खुदाई में लग जाते एसे में उपस्थित भक्तजन दाता के हाथों से तगारी और फावड़ा ले लेते और वो स्वयं ही खुदाई में कुछ देर योगदान देते। सरोवर में पानी की आवक के लिए लगभग एक किलोमीटर तक एक नहर का भी निर्माण करवाया गया।

 कहा जाता है कि ब्रह्माजी के लिए आदमकद मूर्ति निर्माण के लिए दाताश्री स्वयं जयपुर पधारे थे और जिस सोमपुरा बन्धु को मूर्ति निर्माण का काम दिया था उसने काम शुरू किया लेकिन मूर्ति खण्डित हो गई। तब उसने दूसरी बार शिलाखण्ड लेकर काम शुरू किया लेकिन विधि का विधान उसके साथ भी वही हुआ तब उसने दाताश्री को समाचार भिजवाया कि मूर्ति खण्डित हो रही है तब दाताश्री ने दिव्यदृष्टि से मां सावित्री जी को मनाया क्योंकि ब्रह्माजी स्वयं सावित्री के अभिशाप से शापित थे क्योंकि पुष्कर में ब्रह्माजी ने 12वें कल्प की रचना के समय जो घटना घटी थी उसके रहते कलयुग में ब्रह्माजी की पूजा नहीं होगी यह बात सावित्री के अभिशाप में थी। खेतारामजी महाराज ने अपने दिव्ययोग से मां सावित्री जी को शां किया और आदेश भिजवाया कि मकराना के पत्थर से पुनः मूर्तितराश का कार्य शुरू किया जायें । सोमपुरा बन्धु ने दाता के आदेश का पालन किया और ब्रह्माजी व सावित्री जी की मूर्ति के निर्माण का कार्य सम्पन्न किया।

निकटवर्ती गांव इन्द्राणा में श्रीमती लेहरों देवी धर्म पत्नी श्री प्रतापजी पांचलोड़ की कोख से अवतरित दिव्य तरूण भगवद्भक्ति की इच्छा से दाताश्री की शरण में पधारे । उन्होंने अपना नाम तुलछाराम बताया और परिचय दिया। फिर भक्तिमार्ग अपनाने की इच्छा जताई। दाताश्री ने उस तरूण की इच्छाशक्ति को जाना और घर से आज्ञा लेकर सन्यास धारण करने की आज्ञा दी। तब तुलछारामजी घर जाकर अपने माता-पिता को चारधाम की यात्रा करवायी और दाताश्री की आज्ञा के अनुसार घर से अनुमति लेकर धाम पधारे तो दाताश्री ने उन्हें तपसाधना के लिए पीपलिया नामक स्थान पर जाने का आदेश दिया।

तरूण तपस्वी तुलछारामजी महाराज ने बारह वर्षों तक पीपलिया नामक स्थान पर मौन तपस्या की।

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तुलछाराम जी को ब्रह्मज्ञान करवाया –

                               मंदिर निर्माण कार्य पूर्णता की ओर अग्रसर था मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा का मुहूर्त निकलवाया गया। तदनुरूप तैयारियां शुरू हो गयी। अभी तक पूज्य दाताश्री ने किसी को अपना विधिवत उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था।

दाता ने प्रतिष्ठा महोत्सव से कोई पंद्रह दिन पूर्व तुलछारामजी महाराज जो कि पीपलिया में साधनारत थे उन्हें धाम बुलाया गया। फिर दूसरे दिन एक वाहन में बैठकर खेतारामजी महाराज और तुलछारामजी आसोतरा गांव के ही एक चौधरी बंधु के फाॅर्म पर सुदूर शांत एक पेड़ के नीचे वाहन रोककर ड्राइवर को चले जाने को आदेश दे देते और लगभग दो-तीन घण्टे तक खेतारामजी महाराज ने तुलछारामजी को ब्रह्मज्ञान दिया यह सिलसिला चार-पांच दिन तक चला ।

प्राण-प्रतिष्ठा –

              ब्रह्माजी का मंदिर पूर्ण रूप से बनकर तैयार था। गर्भग्रह में ब्रह्माजी को सावित्री के साथ प्रतिष्ठित करने का मुहूर्त निकाला गया । जो कि विक्रम संवत् 2041 मास वैषाख शुक्ल पंचमी तिथि गुरूवार तदनुरूप तारीख 06.05.1984 को तय किया

जोरशोर से तैयारियां शुरू हुई। देश भर से साधु संतो को बुलावा भेजा गया। गांव-गांव आमंत्रण सूचनाएं भेजी गयी। धाम पर सुन्दर रोशनी, शामियाना जगमगाने लगा। बोलियों के चढावे बोले जानें लगे और आखिर में वो घड़ी आ ही गयी जहां पंडितो द्वारा वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच निज मंदिर में ब्रह्माजी को सावित्री के साथ प्रतिष्ठित किया। मगर विधि के विधान के अनुरूप साधक पूज्य खेतारामजी महाराज अपने वृद्ध और जर्जर देह से विचलित हो रहे थे कि उपस्थित साधु संतो और दाता के दिव्य तप से मौत को 24 घण्टे रोक कर रखा और ब्रह्माजी भगवान को विधिवत प्रतिष्ठित कर उन्हें सावित्री के अभिषाप से मुक्त करवाया। अभी तक पूज्य दाता ने प्रतिष्ठित मूर्ति के दर्शन नहीं किये थे। दूसरे ही दिन लगभग 12 बजे का समय और पूज्य दाताश्री ने सुध लेकर पूछा कि ……………………

रामजी…… ब्रह्माजी ने थापन किया रा?

जवाब में हां सुनकर एकबार ऐसा लगा जैसे समय का चक्र थम सा गया हो, दाता श्री ने अपने प्राणों का संचार ऐसे किया जैसे वो स्वयं अपनें प्राणों को उस मूरत में आहूत कर रहे हो। स्वयं ब्रह्माजी के अंशावतार ने अंतिम श्वास ब्रह्माजी की मूर्ति में प्रतिस्थापित करते हुए ब्रह्मलीन हो गये। पूज्य खेतेश्वर दाता के ब्रह्मलीन होने की सूचना त्वरित रूप से चहुंओर फैल गयी लोग आने लगे शाम तक हजारों की संख्या में लोग जयकारा करते हुए पूज्य खेतारामजी महाराज की पार्थिव देह को मंत्रोच्चारण के साथ चंदन की लकड़ी व नारियल के साथ अग्नि संस्कार करवाया गया । उनकी पार्थिव देह पंचतत्वों में विलीन हो गयी। उसी स्थान पर आज बैकुण्ठ धाम बनवाया गया। पूज्य दाताश्री के देवलोक गमन के सात-आठ दिन बाद एक चमत्कार देखने में आया कि लोगों ने अपने मकानों की छत, जो कि अधिकांश खपरेल की बनी होती थी, पाया कि उन पर चंदन की बूंदे पड़ी हुई मिली। यह बात हर किसी ने साक्षात देखी और माना कि ऐसे युगपुरूष महान तपस्वी के देवलोकगमन पर चंदन की बारिश हुई।

पूज्य खेतारामजी महाराज के ब्रह्मलीन होने के बाद पूज्य स्वामी आत्मानंदजी सरस्वती महाराज ने समाज के गणमान्य मौजीज नागरिकों और साधुसंतों की उपस्थिति में पूज्य तुलछारामजी महाराज को चादर देकर भावी गादीपति के रूप में उत्तराधिकारी घोषित कर उन्हें गादीपति बनाया और तब से समाज पूज्य दाताश्री के बताये रास्ते का अनुकरण करता हुआ विकास पथ पर अग्रसर है। आसोतरा धाम सकल राजपुरोहित समाज के लिए आस्था और विश्वास के केन्द्र बना हुआ है।

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खेतारामजी महाराज की शिक्षाएं –

पूज्य दाताश्री जहां भी पधारते उपस्थित लोगों को कुछ अनुकरणीय बातें बताते जिनमें प्रमुख बातें ये थी-

  • माता-पिता की सेवा करना सभी भाई-बंधु मिलजुल कर रहना
  • कन्या की शादी समय पर करना एवं एवज में लड़के पक्ष से कभी पैसे न लेना
  • घर में बकरी पालना वर्जित माना (इसका कारण यह था कि बकरी से उत्पन्न संतान जो कटाई में भी जा सकती है और उसके बेचने से प्राप्त पैसा जब हमारे घर में खर्च होता है तो यह बात ब्रह्मणकर्म के लिए उचित नहीं है।)
  • भावी पीढी शिक्षित हो लेकिन संस्कारित हो यह बात पूज्य दाताश्री करते थे साथ ही
  • नशामुक्ति के लिए भी लोगों को प्रेरित करते थे।
  • सत्गुरुदेव की जय हो……………………………..
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